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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 86  जनेत (बारात) चार दिन रुकी थी । इन चार दिनों में शर्मिष्ठा को एक पल को भी चैन नहीं मिला था । देवयानी उसे छोड़ती ही नहीं थी । जानबूझकर उसे अपने पास खड़ी रखती थी जिससे लोगों को पता चले कि शर्मिष्ठा उसकी दासी है । उसे दासी के रूप में देवयानी की सेवा करते देखकर महाराज वृषपर्वा और महारानी प्रियंवदा को बहुत कष्ट होता था । अपनी पुत्री को देवयानी की दासी बने देखकर प्रियंवदा का हृदय टुकड़े टुकड़े हो जाता था किन्तु वह विवश थी । महारानी भी विवश हो सकती है, यह प्रियंवदा को देखकर पता चलता है ।

ययाति भी जब जब शर्मिष्ठा को देखता , उसके चेहरे पर दया और करुणा के भाव आ जाते थे । एक पुष्प जैसी सुकोमल राजकुमारी एक दासी बनकर सबकी सेवा कर रही है । ययाति का ध्यान बरबस ही शर्मिष्ठा की ओर चला जाता था । शर्मिष्ठा भी कनखियों से ययाति को देख लिया करती थी । जब जब वह पकड़ी जाती , सिर नीचा करके खड़ी हो जाती थी । उसका अंग अंग रोमांचित हो जाता था । उसकी जिंदगी में शुभ रह ही क्या गया था ? उसे अब और कुछ चाहिए भी नहीं था । वह तो बस सम्राट की नजरों की प्यासी थी । जब जब ययाति शर्मिष्ठा की ओर देखते थे , तब तब वह पहाड़ी नदी की तरह उमड़ पड़ती थी ।  उसे स्वयं पर अभिमान होने लगता था । यदि वह देवयानी को कुंए में धक्का नहीं देती तो आज वह हस्तिनापुर की महारानी होती । पर भाग्य पर किसका जोर चलता है ?

विदाई का समय आ गया था । वधू की विदाई की तैयारियां होने लगी थीं । देवयानी ने शर्मिष्ठा को कह दिया था कि वह भी हस्तिनापुर चलने की तैयारी कर ले । देवयानी के वस्त्रों , आभूषणों और श्रंगार के सामान के हजारों संदूक बन गये थे जिन्हें हाथियों और रथों पर लाद दिया गया था । उसके केवल कंगनों के 100 संदूक थे । दास दासियां देवयानी का सामान लदवा रहे थे । शर्मिष्ठा अपनी कांख में एक पोटली दबाए देवयानी के पास खड़ी थी । देवयानी ने उससे पूछा  "तेरा सामान कहां है" ?

शर्मिष्ठा ने अपनी कांख से पोटली निकाल कर देवयानी को दिखाई और कहा "ये रहा , स्वामिनी" ।  शर्मिष्ठा के मुख से 'स्वामिनी' शब्द सुनकर देवयानी को बहुत आनंद आता था । पूरे जीवन वह शर्मिष्ठा को राजकुमारी जी कहती रही थी लेकिन अब वही राजकुमारी उसकी दासी बन गई थी । इस आनंद का वर्णन करना उसके लिए संभव नहीं था । उसने शर्मिष्ठा पर एक उड़ती हुई सी दृष्टि डाली तो उसने उसके हाथ में एक छोटी सी पोटली देखकर कहा  "तेरे वस्त्र कहां हैं दासी" ?  सब लोगों के बीच में दासी शब्द सुनना दासी शर्मिष्ठा को बहुत अखरता था किन्तु वह देवयानी की प्रकृति को अब तक जान चुकी थी । ऐसे अवसरों पर देवयानी शर्मिष्ठा को अपमानित करती ही थी इसलिए शर्मिष्ठा इसकी आदी हो चुकी थी । वह दासी शब्द को अंगीकार कर चुकी थी इसलिए उसे अब दासी शब्द सुनकर अपमान महसूस नहीं होता था । यदि कोई छोटा आदमी मन से यह स्वीकार कर ले कि वह छोटा ही है तो किसी के द्वारा उसे छोटा आदमी कहने से दुख नहीं होगा । समस्या तो तब होती है कि जब कोई बड़ा आदमी किसी कारण वश छोटा हो जाता है और वह आदमी स्वयं को छोटा न समझ कर बड़ा ही समझता है और जब कोई उसे छोटा कहता है तो वह अपमानित महसूस करता है ।

"इतनी छोटी सी पोटली ? क्या वहां पर एक वस्त्र में ही रहना है" ? उसने व्यंग्यात्मक हंसी हंसते हुए कहा । "वैसे भी तेरे पास वस्त्र होंगे भी तो कैसे ? मेरे वस्त्र अभी उतरे ही कहां हैं ? कोई बात नहीं । मैं हस्तिनापुर में जाकर प्रतिदिन नये नये वस्त्र पहनूंगी । महारानी हूं तो दिन में कम से कम दस बार बदलूंगी । तो उनमें से जो तुझे पसंद आयें, उन्हें ले लेना । और देख, मन छोटा मत करना । यदि तू मेरी अच्छी सेवा करेगी तो तुझे मैं अपने उतरे हुए वस्त्रों से मालामाल कर दूंगी । तू भी क्या याद रखेगी कि मेरी स्वामिनी कितनी दयालु हैं" ? और वह अपनी सखियों की ओर देखकर जोर से खिलखिला पड़ी । देवयानी की सखियां भी शर्मिष्ठा का उपहास उड़ाते हुए जोर जोर से हंसने लगीं ।

उन सबको खिल्ली उड़ाते देखकर भी शर्मिष्ठा न तो झेंपी और न ही लज्जित हुई । देवयानी के द्वारा अपमानित होना तो उसकी दिनचर्या बन चुकी थी इसलिए वह केवल मुस्कुरा देती थी । मानव मन का बड़ा अजीब सिद्धांत है कि जब कोई किसी का उपहास उड़ाता है तब सामने वाला अपमानित महसूस करता है । इससे उपहास उड़ाने वाले व्यक्ति के मन को स्वर्गिक आनंद की अनुभूति होती है फिर वह अधिक जोर से उपहास उड़ाने लगता है । किन्तु जब सामने वाला उपहास उड़ाने पर मुस्कुराने लगता है तो उपहास उड़ाने वाले व्यक्ति का मुंह जरा सा हो जाता है । शर्मिष्ठा को मुस्कुराते देखकर देवयानी का मुंह भी जरा सा रह गया ।

देवयानी की डोली सज गई थी । शुक्राचार्य, महाराज वृषपर्वा और महारानी प्रियंवदा देवयानी के पास आ गये थे । ययाति और देवयानी सबके आकर्षण का केन्द्र बने हुए थे किन्तु शर्मिष्ठा के सौन्दर्य, उसकी सादगी, सरलता और निष्कपटता ने सबको अपनी ओर आकर्षित कर लिया था । ययाति के लघु भ्राता सयाति, अयाति , वियाति और कृति सबने देवयानी को घेर लिया था । उन्हें देवयानी के रूप में पहली भातृजाया (भाभी) मिल रही थी । कृति सबसे छोटा था इसलिए वह देवयानी को गोदी में बैठने के लिए मचलने लगा । देवयानी ने भी उसे दुलारते हुए स्वयं से चिपटा लिया । देवर भाभी मिलन का अभूतपूर्व दृश्य बन गया था वहां पर ।  इतने में शुक्राचार्य आगे आये और ययाति के हाथ में देवयानी का हाथ सौंपते हुए बोले "सम्राट, देवयानी को मैंने माता बनकर पाला है और पिता बनकर इसकी छत्रछाया की है । गुरू बनकर दीक्षा दी है और सखा बनकर इससे ठिठोली भी की है । देवयानी मेरी पुत्री ही नहीं अपितु पुत्र, सखा , शिष्य सब कुछ है । इसे मैंने इस जगत का कोई दुख नहीं होने दिया है । आप तो चक्रवर्ती सम्राट हैं । आपके यहां इसे दुख मिलने की तो कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है । पर देवयानी थोड़ी दुराग्रही लड़की है इसलिए इसके तुच्छ अपराधों को क्षमा कर देना और कोई भी ऐसा कार्य मत करना जिससे इसे ठेस पहुंचे । यह ऐसी लड़की है कि जरा सी बात पर रोती हुई मेरे पास आ जायेगी । मैं देवयानी की आंखों में आंसू नहीं देख सकता हूं । जिस दिन मैं इसकी आंखों में आंसू देख लूंगा उस दिन समझ लेना कि महाप्रलय हो जाएगी । बस इतना सा निवेदन है" । शुक्राचार्य का चेहरा तनिक कठोर हो गया था ।

इतने में उन्होंने शर्मिष्ठा की ओर देखा और ययाति से कहा "यह शर्मिष्ठा मेरी पुत्री जैसी ही है । महाराज और महारानी की लाडली बेटी है और मेरी भी बहुत लाडली है । नियति ने इसे देवयानी की दासी बना दिया है इसलिए यह देवयानी के साथ ही रहेगी । शर्मिष्ठा सौन्दर्य में अद्वितीय है । इसका तन सुगंधित है इसलिए प्रत्येक पुरुष इसकी ओर आकृष्ट हो जाता है । मैं शर्मिष्ठा का हाथ भी आपके हाथों में सौंप रहा हूं । अब आप इसके भर्ता हैं । इसकी देखभाल का उत्तरदायित्व अब आपका होगा । भर्ता का अर्थ आप "पति" मत लगा लेना , स्वामी ही समझना । यह आपकी "भोग्या" नहीं केवल दासी हो रहेगी । इसके लिए मैं आपको पहले ही आगाह कर देता हूं राजन कि शर्मिष्ठा को अपनी सेज पर कभी नही सुलाना । यह मेरी सलाह और चेतावनी दोनों ही हैं । यदि आपने इसका अतिक्रमण किया तो आपको बहुत कष्ट भुगतने पड़ेंगे । अब आप जाओ और मेरी दोनों पुत्रियों को स्वस्थ व प्रसन्न चित्त रखना । ईश्वर आपका कल्याण करे, राजन" !

कहकर शुक्राचार्य अपने आंसुओं को पीकर देवयानी से लिपट गये । देवयानी भी शुक्राचार्य से लिपट कर रोने लगी । शर्मिष्ठा अपनी मां के गले से लगकर खूब रोई । शर्मिष्ठा से अधिक प्रियंवदा रोई । महाराज एक कोने में मुंह छुपाकर रोने लगे । वहां का वातावरण ऐसा हो गया कि सब लोग अपने आंसू रोक नहीं सके । रोते रोते देवयानी डोली में बैठी और उसने अपने पास शर्मिष्ठा को भी बैठा लिया । ययाति के इशारे पर डोली चल पड़ी ।

श्री हरि  31.8.23

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6 Comments

Babita patel

04-Sep-2023 08:36 AM

Awesome

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kashish

04-Sep-2023 08:05 AM

Very nice

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KALPANA SINHA

03-Sep-2023 09:28 AM

Nice

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